भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), 2005 ने ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले सभी वयस्कों को प्रति परिवार एक तय मजदूरी पर 100 दिनों तक रोजगार देने का कानूनी अधिकार सुनिश्चित किया था। इस कानून ने ग्रामीण क्षेत्रों से होने वाले तनावजन्य प्रवास को सापेक्षिक रूप से कम किया, तत्कालीन ग्रामीण मजदूरी दर में बढ़ोतरी की, ग्रामीण कार्यों के लिए एक कार्य मानदंड तय करने, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं एवं पुरुषों की मजदूरी को बराबर कर परिवार की आय बढ़ाने में योगदान दिया। बाद की सरकारों का नरेगा योजना पर ध्यान कम होने और बजटीय आवंटन भी कम होते जाने से इस कार्यक्रम का ठीक से क्रियान्वयन न होने और मजदूरी भुगतान में विलंब होने से ग्रामीण इलाकों में उभरे असंतोष ने एक बार फिर शहरी केंद्रों को अपनी चपेट में ले लिया है।
इसके अलावा शहरी ठिकाने मौजूदा शहरी कामकाजी आबादी या आजीविका की तलाश में ग्रामीण इलाकों से आने वाले प्रवासी कामगारों को समाहित कर पाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। हालांकि रोजगार के लिहाज से नगण्य अवसर वाले ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति को देखते हुए प्रवासियों को अगर शहरी केंद्रों में टिकाऊ रोजगार नहीं मिलता है तो भी वे अपने गांव वापस नहीं लौटते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि पहले से ही स्व-रोजगार में लगे लोगों की तादाद और बढ़ जाती है और वे अपने एवं अपने परिवार के श्रम का शोषण कराते हुए गरीबी के मुहाने पर जीवन गुजारने लगते हैं। सम्माननीय प्रधानमंत्री के बयानों से मशहूर हो चुके ‘चायवाला’ या ‘पकौड़ावाला’ के शानदार बताए जा रहे उद्यमी मॉडल भी अपना वजूद बचाए रखने के इस मॉडल की कहानी बयां करते हैं। हम अपने आसपास इन ‘सफल’ उद्यमियों को खूब देखते हैं जिनमें बंगाल से दिल्ली आकर घरों तक सब्जियां बेचने वाला हो या फिर बनारस में सड़क किनारे लजीज गोलगप्पे बेचने वाले एक शख्स की मौत के बाद स्कूल छोड़ने को मजबूर हुआ उसका किशोरवय बेटा हो या फिर ओडिशा से आया हुआ वह प्लंबर जो स्थानीय हार्डवेयर दुकान पर बैठकर आसपास के घरों से मरम्मत संबंधी काम का फोन आने का इंतजार करता रहता है। इसमें दिलचस्प पहलू यह है कि इनमें से हर कोई टिकाऊ एवं सुरक्षित रोजगार अवसर की पेशकश मिलने पर अपने उछाल भरते लाभप्रद कारोबार एवं अपनी आजादी को छोड़ देंगे और वेतन पर काम करने का कैदियों वाला जीवन ही चुन लेंगे।
यह अतिरिक्त श्रम की असली दुनिया है। एक अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त श्रम अदृश्य होता है क्योंकि हर कोई खुद को एवं अपने परिवार को जिंदा रखने के लिए कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। कई लोगों ने इसे स्व-रोजगार का नाम दिया है जबकि कुछ लोग इसे उद्यमशीलता एवं कुछ इसे महिलाओं के सशक्तीकरण की राह बताकर देकर महिमामंडित करने की कोशिश करते हैं। गौरवशाली महसूस कराना असल में अतिरिक्त श्रम के अपने समूह को बरकरार रखने का पूंजीवादी तरीका है ताकि मजदूरी निचले स्तर पर ही बनी रहे। वेतन पर काम करने वाले मजदूर अधिक पारिश्रमिक की मांग करते हैं लिहाजा स्व-रोजगार में लगे इन लोगों का समूह हमेशा ही उससे कम पारिश्रमिक पर अपना श्रम बेचने को तैयार होता है। इससे न केवल मजदूरी न्यूनतम स्तर पर बनी रहती है बल्कि यह न्यूनतम मजदूरी भी महज वजूद बनाए रखने लायक ही होती है।
लेकिन अगर अतिरिक्त श्रम के इस बड़े समूह को एक रोजगार गारंटी कार्यक्रम और सार्वभौम बुनियादी आय योजना में से कोई एक चुनने का विकल्प दिया जाता है तो फिर क्या होगा?
सार्वभौम बुनियादी आय- भेड़ की खाल में भेड़िया?
सार्वभौम बुनियादी आय का आशय सरकार की तरफ से एक न्यूनतम आय की गारंटी देने से है। सरकार एक नागरिक को जिंदा रहने की बुनियादी लागत एवं वित्तीय सुरक्षा देने के लिए एक रकम का भुगतान करती है। इस भुगतान को हासिल करने की अर्हता के कुछ विशेष मानक तय किए जा सकते हैं लेकिन उस समूह के भीतर यह योजना सार्वभौमिक रूप से लागू होती है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अमुक व्यक्ति रोजगार में लगा है या नहीं।
सार्वभौम बुनियादी आय कोई बहुत नई अवधारणा नहीं है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने वर्ष 1967 में दिए अपने एक भाषण में कहा था, ‘हम रोजगार की तलाश में लगे हरेक शख्स को रोजगार देने वाला एक आपात कार्यक्रम शुरू करने की मांग कर रहे हैं और अगर यह कार्यक्रम अव्यावहारिक है तो फिर एक वार्षिक आय की गारंटी दी जाए जो सम्मानजनक परिस्थितियों में जीवन जीने का इंतजाम करे। अब इस दलील का कोई अर्थ नहीं है कि अमेरिका का धन एवं संसाधन गरीबी उन्मूलन को पूरी तरह व्यावहारिक बनाते हैं।’

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने नस्लभेद से मुकाबला किया लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उनका संघर्ष पूंजीवाद से नहीं था। इस तरह आय की गारंटी के लिए उनका प्रस्ताव सिर्फ अमेरिका के श्वेतों एवं अश्वेतों के बीच की आर्थिक असमानता कम करने का जरिया मात्र था। वह यह मानने को राजी थे कि तकनीक एवं पूंजीवाद की प्रगति के साथ रोजगार अवसर कम होते जाने के साथ नए अवसर पैदा भी नहीं होंगे और इसीलिए उन्होंने आय गारंटी योजना का प्रस्ताव रखा। दरअसल आय गारंटी का प्रस्ताव गरीबी उन्मूलन के लिए नहीं बल्कि गरीबों एवं उपभोक्ताओं के हाथों पूंजीवादी प्रगति को बढ़ावा देने के लिए रखा गया था।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर के अवसान के छह दशकों में सार्वभौम बुनियादी आय में अधिक प्रगति नहीं हुई है। अब भी यह पूंजीवाद को बनाए रखने का एक अनिवार्य घटक बना हुआ है। इसकी संकल्पना गरीबी उन्मूलन के एक कल्याणकारी उपाय के तौर पर की गई है लेकिन इसके माध्यम से (1) गरीबों के हाथ में नकद मुद्रा देकर बाजार तक लोगों की पहुंच बढ़ाने का भी मकसद है। इस तरह लोग टूथपेस्ट, जैम एवं केचअप, डिटर्जेंट, सस्ते जंकफूड के पैकेट खरीदने और निजी डॉक्टरों के पास जाने, अपने बच्चों को निजी स्कूल भेजने में इस रकम का इस्तेमाल कर इन उद्योगों को आगे बढ़ाने में योगदान देंगे। (2) वस्तुओं एवं सेवाओं के सार्वजनिक प्रावधान को खत्म कर देना और (3) सबसे बढ़कर, एक अव्यवस्थित एवं हताशा से भरे समाज में दंगे एवं संघर्ष से बचने में भी यह मददगार माना गया है। एक पूंजीवादी समाज में इसे एक सेफ्टी वॉल्व माना जाता है। यह एक पूंजीवादी समाज में उद्यशीलता के महिमामंडन का एक दूसरा पक्ष भी है।
सामाजिक सुरक्षा जालः सार्वभौम बुनियादी आय (यूबीआई) की संकल्पना को इस संदर्भ में भी देखने की जरूरत है कि इसे कहां लागू करने की बात की जा रही है? कुछ गरीब लोगों वाले एक अमीर देश में इसे लागू किया जाने वाला है या फिर कुछ बेहद अमीर लोगों वाले गरीब देश में? जर्मनी ने कुछ अन्य देशों की तरह हाल ही में इस योजना का तीन वर्षों तक चलने वाला परीक्षण शुरू किया है जिसमें 120 लोगों को हर महीने 1200 यूरो मिलेंगे जो कि वहां की गरीबी रेखा से थोड़ा ही अधिक राशि है। शोधकर्ता इन लाभार्थियों के अनुभव की तुलना उन 1380 लोगों से करेंगे जिन्हें इसका लाभ नहीं मिलेगा। गौर करने वाली बात यह है कि 120 लोगों को यूबीआई योजना के तहत उतनी ही राशि दी जा रही है जो गरीबी रेखा से बस थोड़ी ही अधिक है। इसका मतलब है कि दुनिया के सबसे धनी देशों में शामिल इस देश में ये 120 लोग ऐसे हाल में हैं जिनमें उन्हें होना ही नहीं चाहिए। इन 120 लोगों को दिया जाने वाला नकद भुगतान सामाजिक सुरक्षा जाल का हिस्सा होना चाहिए था और अगर ऐसा होता तो उन्हें इस स्थिति में आना ही नहीं चाहिए था। इस तरह नकद भुगतान वह मूलभूत बिंदु नहीं है जो उन्हें गरीबी रेखा के थोड़ा ऊपर रखता है बल्कि एक गैर-नकदी वाला सामाजिक सुरक्षा जाल ही एक तय आय स्तर से नीचे के लोगों को बुनियादी जरूरतें मुहैया कराता है। दुनिया के उत्तरी हिस्से में दिए जाने वाले बेरोजगारी भत्ते या हमारे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये खाद्य राशन जैसे सामाजिक सुरक्षा जाल बनाने की जगह नकद खर्च करने से आबादी का एक खास तबका जरूरी नहीं है कि गरीबी रेखा से बाहर निकल जाए।
सार्वजनिक प्रावधान एवं भ्रष्टाचारः सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली, सार्वजनिक परिवहन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विचारों के साथ सामने आने वाले लोग न तो पूरी तरह बेवकूफ थे और न ही ऐसे जुनूनी लोग थे जिन्हें इस बात की परवाह ही नहीं थी कि वे क्या कर रहे हैं? यह बात अलग है कि आज के दौर में दुनिया भर की सरकारें हमें यही यकीन दिलाने की कोशिश करेंगी। इन व्यवस्थाओं को नौकरशाहीकरण एवं भ्रष्टाचार के ठिकानों के तौर पर पेश किया जाता है और साफ-सुथरी दुनिया के लिए इनका खात्मा जरूरी बताया जाता है। लेकिन इन प्रणालियों का मकसद केवल कुछ लोगों को नहीं बल्कि बहुतेरे लोगों को लाभ पहुंचाना था। यह कुछ लोगों के लिए धन संकेंद्रण के मॉडल का एक वैकल्पिक मॉडल था।
जब एक सरकारी अस्पताल गंभीर रूप से बीमार किसी मरीज का इलाज करने से मना कर देता है तो उस मरीज को निजी अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। इलाज करने से मना करने वाले डॉक्टर को ‘भ्रष्ट’ बताया जाता है और इसके साथ ही कहानी को खत्म मान लिया जाता है। लेकिन असल में यह दूसरी कहानी की महज शुरुआत होती है जिसमें इस सरकारी डॉक्टर को उस निजी अस्पताल से एक राशि का भुगतान किया जाता है जहां पर भर्ती कराने की सलाह दी गई थी। निस्संदेह वह डॉक्टर इस भ्रष्ट व्यवस्था का एक अंग है लेकिन इस भ्रष्ट व्यवस्था का असली शिल्पकार तो वह निजी अस्पताल है। स्कूलों, अस्पतालों एवं सरकारी प्रशासन जैसे सभी बहुलवादी संस्थानों को भ्रष्ट बना देना पूंजीवाद के मुनाफा कमाने वाले दर्शन का केंद्र-बिंदु है। आंगनवाड़ी केंद्रों में बने गर्म खाने की जगह बच्चों को बिस्कुट पैकेट देने की अनवरत सरकारी कोशिशों में भी यही रुख नजर आता है। इस तरह सार्वजनिक सेवाओं को न सिर्फ पूंजी बल्कि पूंजीवादी राज्य के जरिये भी कमतर किया जाता है।
नब्बे के दशक के बाद से अब तक सामूहिक कल्याण कार्यक्रमों की संकल्पना पर सबसे गहरी चोट लगने के बीच आज हम ऐसी जगह आ पहुंचे हैं जहां हम विकास का कोई भी वैकल्पिक मॉडल नहीं देख पाते हैं। वैकल्पिक मॉडलों को पूरी शिद्दत से खारिज एवं बर्बाद किया जा चुका है। संभावनाओं के ऐसे निर्वात में हमारे लिए भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये को देख पाना मुश्किल है।
असमानताः ऑक्सफैम की 2019 में असमानता पर आई रिपोर्ट के मुताबिक भारत के शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77.4 फीसदी है जबकि नीचे की 60 फीसदी आबादी के पास केवल 4.8 फीसदी राष्ट्रीय संपत्ति ही है। अगर भारत जैसे देश में कभी सार्वभौम बुनियादी आय का प्रस्ताव लागू होता है तो इसका यही मतलब होगा कि आबादी के इस 60 फीसदी हिस्से को एक तय नगद राशि देनी होगी। इस श्रेणी में शामिल सभी लोगों को न्यूनतम नकद खर्च के लायक रकम देने की जरूरत होगी। इस मतलब होगा कि यह नकद सहयोग बजट दबावों के चलते स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, आवास एवं परिवहन जैसे बाकी सभी दूसरे सार्वजनिक प्रावधानों की जगह ले लेगा। ऐसे में सार्वभौम बुनियादी आय से जुड़ा बड़ा सवाल यह है कि जन कल्याण से जुड़ी हर तरह की सरकारी जिम्मेदारी को हटाकर क्या इस योजना को लागू किया जाएगा?
सार्वजनिक उत्पादः आखिर में हम इस सवाल तक पहुंचते हैं कि हमें गैर-नकद सार्वजनिक उत्पादों एवं सेवाओं की जरूरत ही क्यों है? और क्या निजी कंपनियां सार्वजनिक उत्पाद मुहैया कराने में सरकार की जगह ले सकती हैं? अर्थशास्त्र में एक सार्वजनिक उत्पाद को ऐसी वस्तु या सेवा के रूप में परिभाषित किया जाता है जिससे किसी भी व्यक्ति को बाहर नहीं रखा जा सकता है और किसी एक शख्स के उपभोग से दूसरों के लिए इसकी उपलब्धता (मां के प्यार की तरह) में कोई कमी भी नहीं आती है। हम सड़कों के किनारे लगने वाली लाइट का उदाहरण ही लेते हैं। जब कोई सड़क रोशन हो जाती है तो सिर्फ उस सड़क के इर्दगिर्द रहने वाले लोगों को ही रोशनी नहीं मिलती है, उस रास्ते से गुजरने वाले हरेक शख्स के लिए रोशनी उपलब्ध होती है। इसके साथ ही उस रास्ते से 100-200 लोगों के गुजर जाने के बाद वह स्ट्रीट लाइट दूसरों को रोशनी के इस्तेमाल से रोकने के लिए बंद नहीं हो जाती है। स्ट्रीट लाइट से न केवल उस रास्ते से आवागमन आसान हो जाता है बल्कि आसपास रहने वाली समूची आबादी को सुरक्षा का अहसास भी होता है। इन दोनों का मूल्य अनमोल है। अगर हम इसके प्रावधान की एक कीमत रखने की कोशिश करते हैं तो कोई भी इसका भुगतान करने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हर कोई यह दावा कर सकता है कि वह उस सड़क का इस्तेमाल नहीं करता है। इसके अलावा उसे यह भी पता होगा कि चाहे वह भुगतान करे या न करे, वह सड़क रोशन बनी रहेगी। इसका नतीजा यह होता है कि इस उत्पाद को मुहैया कराने वाला इस गतिविधि से किसी तरह का लाभ नहीं कमा सकता है। लिहाजा कोई भी निजी कंपनी एक समुदाय को सुरक्षा का अहसास कराने वाला यह उत्पाद मुहैया कराने को तैयार नहीं होगी क्योंकि इससे उसे मुनाफा नहीं होगा। ऐसी स्थिति में इस उत्पाद की कीमत किस तरह तय की जा सकती है? यही कारण है कि स्ट्रीट लाइट सेवा स्थानीय सरकारें ही मुहैया कराती हैं और इसकी लागत का इंतजाम बजट आवंटन से होता है।
यही बात पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं परिवहन जैसे उत्पादों पर भी लागू होती है जिनका मूल्य सुरक्षा की तरह अनमोल होता है और इसलिए सभी लोगों को ये सेवाएं मुहैया कराने के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है। इन सेवाओं एवं उत्पादों से अर्जित मूल्य उनमें लगाए गए मूल्य से अधिक होता है और इनकी आपूर्ति के शुल्क से भी कहीं अधिक होता है। अगर निजी क्षेत्र इन सेवाएं एवं उत्पादों को मुहैया करा रहा है तो वह लाभ कमाने के लिए इनके एवज में शुल्क इतना लेने लगेगा जो कुछ लोग ही दे पाएंगे, बहुत लोगों के लिए यह काफी अधिक होगा। इससे बहिष्करण की स्थिति पनपेगी जो आगे चलकर समाज में असमानता बढ़ाने का ही काम करेगी। इस बहिष्करण का यह मतलब भी होगा कि निम्न प्रतिरोधक क्षमता वाले कुपोषित बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाएगी और उनकी सीखने की क्षमता भी प्रभावित होगी। खराब पोषण स्तर वाली माताएं अल्प-पोषित शिशुओं को ही जन्म देंगी जिनमें से कई बच्चे वयस्क होने तक शायद जीवित भी न बच पाएं। आजादी के बाद के दशकों में हमने सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, एवं परिवहन प्रणालियों की लड़खड़ाहट के बावजूद जो कुछ भी हासिल किया है वह सबके जीवन की बेहतर गुणवत्ता से जुड़े अपने अंतर-पीढ़ीगत स्वास्थ्य एवं शिक्षा मानकों में धीमी गति से ही सही लेकिन क्रमिक रूप से हुआ सुधार है। निजीकरण एवं रोजगार-रहित वृद्धि अगर साथ-साथ चलती है तो फिर इन सभी मानकों में जबरदस्त गिरावट देखने को मिलेगी।
गरिमाः गरीबी के मुहाने पर खड़े लोग खुद को बचाए रखने के लिए एक आय गारंटी योजना को ‘अपना’ सकते हैं, कुछ उसी तरह जैसे कि वे अपना शोषण कराने के लिए राजी होते हैं। लेकिन इसे लोगों की स्वेच्छा से की गई पसंद नहीं बताया जा सकता है। एक स्वैच्छिक चयन तभी हो सकता है जब किसी व्यक्ति के समक्ष एक से अधिक विकल्प मौजूद हों। जब कामगार एक ‘बुनियादी आय’ लेने को तैयार हो जाते हैं तो यह उनकी वरीयता को नहीं दर्शाता है। यह तो सिर्फ भूख एवं इस बुनियादी आय के बीच की जाने वाली पसंद है। सवाल यह है कि क्या वे यह बुनियादी आय मिलना शुरू होने पर रोजगार की अपनी तलाश बंद कर देंगे? इसका जवाब नकारात्मक है।
बुनियादी आय के मॉडल तैयार करने वाले नीति-निर्माता भी यही दावा करते हैं कि इससे कामगारों को बेहतर रोजगार की तलाश में मदद मिलती है। यह साफ तौर पर दर्शाता है कि कामगार खैरात नहीं चाहते हैं, वे हमेशा ही एक सुरक्षित एवं तय वेतन वाले रोजगार को तरजीह देते हैं जहां पर काम का समय तय हो, साप्ताहिक अवकाश मिलता हो, बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल का इंतजाम हो और जरूरी सेवानिवृत्ति लाभ भी मिलते हों।
यह धारणा हमें गरिमा के महत्त्वपूर्ण मुद्दे तक ले जाती है। क्या हमसे यह मानने की अपेक्षा की जाती है कि कामगारों के एक समूह के बेहद गरीब होने से उन्हें गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार ही नहीं है? क्या इस देश का संविधान हम सबको समान नहीं बनाता है और हम सबको गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी नहीं देता है? हमारे देश में सीमित रोजगार गारंटी कानून ने कामगारों को ग्रामीण क्षेत्रों में पहली बार एक तरह की गरिमा का अहसास कराया था।
कामकाजी गरीबों के बीच की महिलाओं के साथ बातचीत से अक्सर पता चलता है कि पितृसत्तात्मक समाजों में नकदी पर नियंत्रण पुरुषों का ही होता है और इस वजह से नकदी का इस्तेमाल वे अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से करते हैं। वहीं अगर सरकार परिवारों को खाद्य कूपन देने लगे तो उससे परिवार का पोषण स्तर सुधरेगा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं, सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के लिए आवंटन बढ़ाती है तो उससे पूरे समाज की समग्र स्थिति बेहतर हो सकेगी। एक सामाजिक सुरक्षा जाल मुहैया कराने से उन लोगों को अपनी गरिमा खोए बगैर हर समय बेहतर स्थिति में रखा जा सकेगा।